अमरीकी फौजों के अफगानिस्तान से लौटने के बाद तालिबानी लड़ाकों ने इस देश पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया। आज तालिबानियों की सही तस्वीर सामने आ रही है जिसमें वे बच्चों, औरतों और युद्ध न कर पाने वाले बूढ़े लोगों को मौत के घाट उतार रहे हैं। इन तालिबानियों का यह दावा है कि वे इस्लाम के लिए युद्ध करने वाले ‘मुजाहिद’ हैं। यद्यपि उनके घिनौने कार्य इस्लाम की मूल शिक्षाओं के विपरीत हैं जो अन्यायपूर्ण ढंग से, आत्मघाती बमों द्वारा, अनुबंधो और शांति-संधि को तोड़कर लोगों को मारने से मना करती हैं। लगभग रोज़ ही तालिबान व इसके लड़ाके निरंतर इस्लामी-सिद्धांतों की धज्जियां उड़ा रहे हैं। सच्चाई में, वे शांति-संधियों का पालन नहीं करते जो शरिया के असली मकसद- मज़हब तथा इंसानी जानें बचाने पर जोर देती हैं।
अल्लाह नै कुरान में फरमाया है कि 'अगर वे शांति की ओर झुकते
हैं तो तुम भी उसी ओर झुको और अल्लाह में यकीन करो। क्योंकि
असलियत में वह सब कुछ सुन सकता है और सब कुछ जानता है।’
(अल-कुरान 8:61). इस आयत के विपरीत, तालिबानी अफगानिस्तान
सरकार द्वारा पेश किए गए शांति-समझौते की ओर झुकते नहीं दिख रहे बल्कि वे खून-खराबा और लूट-खसोट कर रहे हैं।
तालिबानियों ने औरतों, बच्चों और आम लोगों के अधिकारों का
हनन किया है तथा इन्हें उन कार्यों के लिए सता, रहे हैं और सजा दे रहे हैं
जिनके लिए अल्लाह ने उन्हें कोई अधिकार नहीं दिया। हर गुजरते दिन
के साथ साफ होता जा रहा है कि तालिबानी इस्लाम-धर्म का
प्रतिनिधित्व नहीं करते बल्कि वे ऐसे भूखे भेड़िये हैं जो सता पाने के लिए
किसी भी हद तक गिर सकते हैं।
एक बार सऊदी अरब के एक मुफ्ती शेख अहमद अन-नजमी (1927-2008) से जब तालिबान व ओसामा बिन लादेन के बारे में पूछा
गया तो उन्होंने हदीस की एक आयत हवाला देते हुए कहा था कि ‘अल्लाह उन लोगों पर कहर बरपाता है जो नई तरह की बातें करते हैं।
(सहीह मुस्लिम, हदीस सं0 1978) और उन्हें ‘बिद्दती तकफीरी’ का नाम
दिया जो अफगानिस्तान में आतंकवाद तथा खून-खराबे की पैरवी करते हैं। इसलिए, इस्लामी विद्वानों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे आगे आकर तालिबानियों तथा उनके बुरे कार्मों के प्रति सचेत करें और यह बताएं कि वे किस प्रकार इस्लाम का नाम बदनाम कर रहे हैं और